Monday, September 24, 2018

भारत के हिंदुओं के साथ एक और विश्वासघात: आरएसएस का गांधीकरण


आरएसएस केशव-माधव के मार्ग पर ही चले...
भारत के हिंदुओं के साथ एक और विश्वासघात: आरएसएस का गांधीकरण
प्रसन्न शास्त्री


 

भारत हिंदु राष्ट्र होने की घोषणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवम प्रथम सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवारने अपने जीवनकाल में ही कर दी थी. भारत के लोगों की एक राष्ट्र के रुप में हिंदु की पहचान उनके अंतर्निहित मूलतत्व हिंदुत्व के कारण ही है. यह पहचान कोई पांच-पच्चीस सालों में प्राप्त नहीं हुई है. भारत के राष्ट्रत्व की हिंदु के रुप मे पहचान युगो से उसके साथ संलग्न है. अधर्म के सामने धर्म को विजयी बनाने के उदेश्य से महाभारत करना हिंदुत्व की पहचान है. धर्म के संरक्षित रहेने के कारण ही हिंदुत्व युगों से अनेक चुनौतियों के रहेते भी अडिग रहा है.

जब भारत की पहचान मिटाने हेतु योजनाबद्द तरीकों से अनेक आक्रमण हो रहे थे. तब डॉ. हेडगेवारने कोंग्रेस छोड के एक नया क्रांतिपथ तैयार करने के उदेश्य से विजयादशमी के पावनपर्व पर नागपुर में 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. तब भारत के एक हिंदु राष्ट्र होने की अपार श्रद्धा उनके मन-ह्रदय में थी. इसी अपार श्रद्धा के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के हिंदु समाज और हिंदुत्व की आराधना करनेवालों के मन और ह्रदय में अमिट स्थान बना शका है.
दलीलें दि जाती है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का नाम हिंदु स्वयंसेवक संघ अथवा अन्य कोई नाम नहीं रखा गया है. किन्तु डॉ. हेडगेवार के कार्यदर्शन और चिंतन का निचोड हे कि भारत एक हिंदु राष्ट्र है और हिंदुत्व भारत का राष्ट्रत्व है. जिसके कारण शायद उन्होंने हिंदु शब्द को घोषितरूप से उल्लेखित करना आवश्यक नहीं समजा होगा. हमें ये याद रखना चाहिए कि एकमात्र हिंदु राष्ट्र भारत के अलावा विश्व के अन्य देशों में हिंदु स्वयंसेवक संघ है. 1923 में स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित हिंदुत्व के विचारदर्शन से डॉ. हेडगेवार पूर्णरूप से सहमत थे. लेकिन हाल ही में आरएसएस के छठ्ठे सरसंघचालक मोहनराव भागवत द्वारा दिये गये एक वक्तव्य से डॉ. हेडगेवार के हिंदुत्व के विचार और हिंदु राष्ट्र के रुप में भारत की पहचान को पुनर्स्थापित करने की आकांक्षाओं को मिटाकर आरएसएस के गांधीकरण की प्रक्रिया ज्यादा गति से आगे बढने कि ओर संकेत कर रहा है.
भाजपा का कॉंग्रेसीकरण देश की राजनीति के हिंदुकरण की प्रक्रिया को पटरी पर से उतार चुका है. उसी प्रकार भारत की हिंदु राष्ट्र के रुप में पहचान को पुनर्स्थापित करने की 100 करोड हिंदुओं की आकांक्षाओं को आरएसएस के गांधीकरण की प्रक्रिया संपूर्णरूप से तहस-नहस कर देंगी. भारत की हिंदु राष्ट्र के रुप में राष्ट्रीय पहचान पुनस्थापित होने के बाद भारत को संवैधानिक रुप सें हिंदु राज्य के रुप में वैश्विक घोषणा की प्रक्रिया आगे बढ शकती है. लेकिन आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के दिल्ली में आय़ोजित भारत का भविष्य- आरएसएस का द्रष्टिकोण, कार्यक्रम में कि गई टीप्पणी से हिंदुत्व केलिए जीवन खपानेवाले तमाम संगठन औऱ व्यक्तिओं में अपने समर्पित जीवन उदेश्य के प्रति चिंता के साथ एक चिंतन की स्थिति भी बन चुकी है. प्रश्न उठ रहा है कि क्या डॉ. हेडगेवार का हिंदुत्वनिष्ठ संगठन परिवर्तन के नाम पर अपने मूलभूत सिद्धांतो से दूर जा रहा है और उन सिद्धांतों को छोडने कि दिशा में आगे बढ रहा है ?

दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में मोहन भागवतने संविधान की प्रस्तावना में भ्रातृत्व भावना के विकास के संदर्भ में बात करते हुए कहा था कि विविधता में एकता, समभाव और एकदूसरे के प्रति सम्मान हिंदुत्व का भी सार है. भागवतने आगे स्पष्टता करते हुए कहा था कि जो कोई कहेगा कि मुस्लिम स्वीकार्य नहीं है, तो हिंदुत्व भी खतम हो जायेंगा. आरएसएस संविधान की प्रस्तावना के एक-एक शब्द के साथ मात्र सहमत हीं नहीं है, अपितु पूर्ण श्रद्धा के साथ उसका अनुसरण भी करता है.
भारत के करोडों हिंदु जिसे देश के राष्ट्रत्व और हिंदुत्व के संरक्षक के रुप में देख रहे है, एसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत का वक्तव्य बडी चिंताओं के साथ चिंतन के कई गंभीर प्रश्नों को भी जन्म दे रहा है. प्रश्न उठ रहे है कि – क्या मुस्लिमों के बगैर हिंदुत्व को अधुरा कहेना मुस्लिमों द्वारा आठ शताब्दिओं तक अपमानित हुए भारत के हिंदुओं का घोर अपमान नहीं है ? क्यां सरसंघचालक मोहन भागवतने हिंदुत्व की विचारधारा को छोड दिया है और क्यां सैद्धांतिक भ्रष्टताओं के माध्यम से आरएसएस को भ्रमित करते कोई अलग रास्ते पर मोडने कि या ले जाने की तैयारी हो रही है ? क्या 2014 के आम चुनावों में भाजपा की जीत के बाद देश में हिंदुत्व की भावना के चलते राजनीतिक एकता के दिखानेवाले हिंदु समाज की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं होने के कारण 2019 के आम चुनावों में भाजपा को हारता देख मुस्लिम मतदाताओं को उसके साथ जोडने केलिए कोई तैयारी के कारण भागवत को ऐसी टीप्पणी करने केलिए बांध्य होना पडा है ? 12वी शताब्दि से पहेले भारत में मुस्लिम थे हीं नहीं, लेकिन 12वी शताब्दि से पहेले भी भारत में हिंदुत्व था औऱ भविष्य में भी रहेनेवाला है. तब सवाल ये उठता है कि मुस्लिमों के बगैर हिंदुत्व अधुरा कैसे ? क्या इस्लाम के अस्तित्व के 1400 वर्षो के कालखंड में किसी भी मुस्लिम शासक से लेकर के एक आम मुस्लिमने कभी कहा है कि हिंदुओं के बगैर उनका इस्लाम किसी भी रुप में अधुरा है ? बात तो आज तक होती आई है और आगे भी होगी कि पाकिस्तान के बगैर भारत अधुरा है. हिंदुओं के प्रति नफरत का परिणाम है पाकिस्तान. तो क्या फिर एक बार ऐसी बातें करके भारत के हिंदुओं को निराश करके पाकिस्तानवादी मानसिकतावाले लोगों का होंशला बढाने का पाप नहीं हो रहा है ?
दिल्ली में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के समावेशी विचारधारा को लेकर के एक बडी नीतिगत घोषणा की थी. यह घोषणा संघ के साथ सैद्धांतिक भावनाओं के कारण जुडे हुए तमाम स्वयंसेवको केलिए एक आघात के समान होगी. मोहन भागवतने कहा था कि संघ के द्वितिय सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर की पुस्तक बंच ओफ थोट्स शाश्वत नहीं है. भारत में रहनेवाले हर गैर-हिंदुओं पर संघ के विचार के बारे में बातचीत करते हिए भागवतने एक प्रश्न का उतर देते हुए कहा था कि ऐसी बाते कुछ स्थिति में कोई विशेष संदर्भ में कही गई थी. जो शाश्वत नहीं थी. विजन एन्ड मिशन-गुरुजी नाम की पुस्तक में गुरुजी के शाश्वत विचारो को सामिल किया गया है. कोई विशेष स्थितिओं मे पेदा हुए ऐसे तमाम विचारो को हटा दिया गया है.
यहा पर याद रखना चाहिए कि 2006 में नागपुर के संघ मुख्यालय से जारी की गई एक बुकलेट के माध्यम से वी एन्ड अवर नेशनहुड डिफाईन्ड पुस्तक को पहेले ही अस्वीकार्य घोषित की गई है. 2006 में जारी कि गई बुकलेट में दावा किया गया था कि गोलवलकरने इस पुस्तक में कहा था कि इस में उनके विचार सामिल नहीं है. लेकिन बाबाराव सावरकर की पुस्तक राष्ट्रमिमांसा की यह संक्षिप्त प्रति है.
हालाकि बंच ओफ थोट्स गुरुजी के विचारों का संपुट होने से कोई इन्कार नहीं कर शकता है. भागवतने बंच ओफ थोट्स के बारें में बात करते हुए कहा था कि आरएसएस कोई संकीर्ण विचारोवाला संगठन नहीं है. समय के साथ संघ के विचार और उसका प्रगटीकरण भी बदला है. यहां एक और चीज गौर करने लायक है कि दिल्ली की त्रिदिवसिय व्याख्यानमाला में भागवतने एकबार भी गोलवलकर का उल्लेख करना ठीक नहीं समजा था. हालाकि मोहन भागवतने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जीवन से जुडी कई बातों का उल्लेख किया था. तब प्रश्न यह भी उठतें है कि क्या आऱएसएस का सबसे लंबे समय तक मार्गदर्शन करनेवाले श्रीगुरुजी के विचार संकीर्ण थे ? क्या डॉ. हेडगेवार और श्रीगुरुजी की हिंदुत्व की विचारधारा में कोई अंतर था ? क्या श्रीगुरुजी के हिंदुत्वनिष्ठ चिंतन में कोई त्रुटि थी औऱ क्या वह संघ को कोई अन्य मार्ग पर ले गये ?

ये बात सदैव याद रहनी चाहिए कि श्रीगुरुजीने 23 वर्षो तक और अपने जीवन के आखरी पल तक संघ का नेतृत्व किया था. आऱएसएस जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात कर रहा है, वह विचार श्रीगरुजी के भारत राष्ट्र की अवधारणा में से ही तो लिया गया है. आरएसएस अप संगठन के गुरु रहे एम. एस. गोलवलकर के कुछ विचारों से सहमत नहीं है औऱ खुद में परिवर्तन कर रहा है, यह कहना बिलकुल ऐसा नहीं है कि जैसे कोई संगठन अपनी नींव खोद के फेंकने पर उतारुं हो ?

प्रवर्तमान हिंदुत्वनिष्ठ आंदोलन को मजबूत वैचारीक बल प्रदान करने में विनायक दामोदर सावरकर की 1923 में लिखित पुस्तक हिंदुत्व की एक बडी भूमिका रही है. सावरकरने सिंधु नदी से सिंधुसागर तरक फेली भारतभूमि में पितृभूमि औऱ पुण्यभूमि वाले औऱ ऐसा माननेवाले लोंगो को हिंदु कहा था. सावरकर की हिंदुत्व की संकल्पना में समान राष्ट्र और समान जाति पितृभूमि शब्द में औऱ समान संस्कृति पुण्यभूमनि शब्द में सामिल है. आज हिंदुत्वनिष्ठ आंदलन के साथ संबंधित प्राय हर कोई यह कहता है कि हिंदु शब्द सर्वसमावेशक है. हिंदु शब्द स्वयं इतना व्यापक है कि उसकी कोई सीमा होने की बात को मानना एक तर्क है. लेकिन सावरकर इस बारे में बिलकुल स्पष्ट थे. सावरकरने द्रढतापूर्वक मुस्लिमो, ईसाईओं पारसीओं और यहुदीओं को हिंदु की परिघि से बहार रखा था. वो कहते थे कि यह लोगों के शास्त्रग्रंथ, संतगण, विचार औऱ महापुरुष इस भूमि में पेदा नहीं हुए है. उनके नाम औऱ जीवनद्रष्टि विदेशी मूल की है. उनकी निष्ठा भी विभाजित है. सावरकरने गैरहिंदुओ केलिए एक प्रस्ताव भी रखा था कि वह सब मूल धारामें सम्मलित हो जायें, मार्ग विचलित स्नेहीजनो के स्वागत की तत्परता से हम (हिंदु) राह देख रहे है. आपको केलल हम सबकी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा समर्पित कर के इस भूमि को अपनी पुण्यभूमि औऱ पितृभूमि स्वीकार करना है. आप सब का हिंदु समाज में स्वागत है. सावरकरने चेतवानी भी दी थी कि जब तक यह लोंग हिंदु की परिभाषा में नहीं आते है, तब तक मात्र दलगत लाभ केलिए इनका उपयोग करना ठीक नहीं है.
हिंदुत्व की परिभाषा के बारे में सावरकरने सदैव कहा था कि यह राष्ट्र की विशाल बहुसंख्यक जनताने हिंदुत्व को जिस अर्थ में स्वीकार किया है, उसी के आधार पर हिंदुत्व के मूलतत्वो को निर्धारीत करना है. हिंदुओं को अस्वीकार्य ऐसे किसी भी शाब्दिक अर्थ देने से सावरकर दूर रहे थे. इसका प्रमाण यह है कि भारत के संविधान से बने हिंदु कोड में भी परोक्षरुप से सावरकर की हिंदुत्व की परिभाषा का स्वीकार किया गया है.
सावरकर स्पष्ट रुप से हिंदुत्व हिंदुइज्म से ज्यादा व्यापक होने की बात बता चुके है और उन्होंने हिंदुत्व को हिंदुइज्म नहीं, पर हिंदुनेस कहेना उचित समजाथा. हिंदुत्व को व्यापक अर्थ में हिंदुडोम यानि समग्र हिंदु समाज के हिंदु विश्व को अभिव्यक्त करनेवाला बताया था.



कारावास के दौरान सावरकरने हिंदुत्व पुस्तक लिखी थी और 1923 में नागपुर में वह पुस्तक सावरकर के अभिनव भारत के निकटवर्ती सहयोगी औऱ हेडगेवार के घनिष्ठ सहयोगी विश्वनाथ विनायक केलकर के हाथ में सबसे पहेले पहोंची थी. यह पुस्तक को विश्वनाथ विनायक केलकरने सबसे पहेले प्रकाशित करवाई थी औऱ हिंदुत्व पुस्तक से डॉ. हेडगेवार अत्यंत प्रभावित हुए थे. संघ के संस्थापक डॉ. के. बी. हेडगेवार की अधिकृत जीवनकथा के लेखक ना. ह. पालकरने लिखा है कि निशंकरुप से डॉक्टरजी के हिंदुत्व औऱ हिंदु राष्ट्रीयता के विचारो में तथा इस पुस्तक में व्यक्त किए गये तर्कशुद्ध, सरल व स्पष्ट विचारों में जो समानता थी, उससे डॉ. हेडगेवारना आत्मविश्वास बढा था. हिंदुत्व पुस्तक से डॉ. हेडगेवार अत्यंत प्रभावित थेऔऱ वह हर स्थान पर इस पुस्तक की प्रशंसा करते थे.
अहमदाबाद में थोडे वर्षो पहेले एक सेमिनार हुआ था, उसके व्याख्यान कों एक पुस्तक का स्वरुप दिया गया था. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदुत्व नामक पुस्तक में हिंदुतव की विभावना- सावरकर एवम संघ का वर्तमानकालिन अभिप्राय नाम से डॉ. श्रीरंग गोडबोले के एक आर्टिकल को भी पुस्तक में स्थान दिया गया है. डॉ. गोडबोले सावरकरजी से संबंधित साहित्य और विचारो के अच्छे अध्ययनकर्ता है. इस आर्टिकल में डॉ. गोडबोले ने कहा है कि डॉ. हेडगेवार सावरकर के विचारो से पूर्णत् सहमत थे. वो दोनों (सावरकर औऱ हेडगेवार) दो शरीर और एक आत्मा थे, ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. दोनों के बीच कोई मतभिन्नताथी तो, वह मात्र ध्वज को लेकर के थी. सावरकर कृपाण, कुण्डलिनी युक्त भगवाध्वज के पक्षधर थे, तो डॉ. हेडगेवार परंपरागत भगवा ध्वज के पक्षधर थे. आर्टिकल में डॉ. श्रीरंग गोडबोलेने लिखा है कि सावरकर की हिंदुत्व की संकल्पना के साथ संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार पूर्णत् सहमत थे. डॉ. हेडगेवार की वैचारीक स्पष्टता उनके यह उग्र शब्दों में अभिव्यक्त हो रही है. आर्टिकल के मुताबिक हेडगेवारने कहा था कि आज तक जो भी कोई विदेशी लोग भारत में आये है, वह केवल अन्याय, लूंट, आक्रमण औऱ दमन के इरादे से आये थे. उन्होंने अपनी आसूरी वृति की भूख को संतुष्ट करने केलिए हमारे तमाम सुंदर औऱ पवित्र स्थानों को नष्ट कर दिया. यही एसे लोगों का इतिहास रहा है. हमारी जमीन को छीननेवाले ऐसे विदेशीओं को इस देश के अंगभूत तथा हिंदुस्थान की संतान मान के उनको हमारे देशवासीओं के रुप में गले लगाने का अर्थ है कि हमने हमारी बुद्धि गिरवी रख दी है. आर्टिकल में हेडगेवार द्वारा मुस्लिमों के संदर्भे कही गई बात भी लिखी गई है, उसके मुताबिक – हिंदुओं के कल्याण से उनके हितो की हानी होती है, यह माननेवाले हमारे भाई अथवा मित्र नहीं है, सच्चाई तो यह है कि वह हमारे पडोशी बनने की योग्यता भी नहीं रखते है. मुस्लिमों केलिए हेडगेवारने विश्वासघाती शब्द के प्रयोग के बारे में भी असहमति व्यक्त करके कहा था कि विश्वासघाती मूलभूतरुप से हमारे अंदर के होते है, मुस्लिम तो इस राष्ट्र के मूल निवासी ही नहीं है. इसलिए उन्हे इस राष्ट्र के विश्वासघाती नहीं, अपितु राष्ट्र के शत्रु कहेना ही योग्य है. यह शब्दों से स्पष्ट संकेत मिल रहे है कि संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार अत्याधिक समावेशक हिंदुत्व की परिभाषा के पक्षधर नही थे.
हालाकि हेडगेवार कि मूलभावना को दरकिनार करके साठ के दशक से लेकर के विशेषरुप से 1977 के बाद संघ की विचारधारा में हिंदुत्व शब्द को ज्यादा समावेशक बनाने की होड सी लगी रही थी. शायद उदेश्य हो शक्ता है कि संघ को राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर सर्वस्वीकृति की कोई ललक लग गई हो अथवा हिंदुत्व के आंदोलन को अपने मार्ग से विचलित करनेवाले तत्वो की आलोचना का प्रभाव संघ के नीतिनिर्धारको पर असर जमाने में सफल रहा हो ऐसी संभावना हो शक्ती है.
सर्वसमावेशक हिंदुत्व की परिभाषा करने के अलग-अलग कालखंडो में संघ के नेताओं के द्वारा कहा गया है कि भारत के साथ ऐकात्मता रखनेवाला हर कोई हिंदु है- जैसे कि मुस्लिम हिंदु, ईसाई हिंदु. भारत में निवास करनेवाला औऱ भारतीय संस्कृति के अनुरूप आचरण करनेवाला हिंदु. हर भारतीय हिंदु है. भारतीयत्व ही हिंदुत्व है. केवल मुस्लिम औऱ ईसाई होने के कारण कोई व्यक्ति की राष्ट्रीयता परिवर्तित होती नहीं है. खुद को हिंदु माननेवाला, हिंदु कहे जानेवाला हर कोई हिंदु है.
तब प्रश्न उठते है कि संघ में भगवा ध्वज के बाद डॉ. हेडगेवार का ही स्थान सबसे ज्यादा आदरणीय है, तब अतिसमावेशक हिंदुत्व का विचार नहीं करनेवाले हेडगेवार की विचारधारा से विचलित होने की आवश्यकता पर आरएसएस मंथन करेगा? क्यां आज की स्थितिओं में ऐसा कोई परिवर्तन हुआ है कि बडी संख्या में भारत के मुस्लिम औऱ ईसाई फिर से हिंदु बनने के ईच्छुक या उत्सुक हो? स्वयं को हिंदु कहेलवाने में अपमान माननेवाले मुस्लिम व ईसाई को हिंदु कहेना अतिरेक की पराकाष्ठा नहीं है? क्यां केवल संघ की ईच्छा के कारण हिंदु समाज अपने विचारों में परिवर्तन कर लेगा? ईसाई व मुस्लिमो के मजहबी विचारों में अपने पंथ को नहीं माननेवालो को शत्रु की मान्यता दी गई है और क्यां संघ ऐसी सच्चाई की उपेक्षा करके हिंदुओं केलिए ज्यादा बडी मुश्किल खडी नहीं कर रहा है? क्या संघ अतिसमावेशक हिंदुत्व के मामले में संतो-धर्माचार्यो तथा सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक संगठनों से विचारविमर्श करके समर्थन प्राप्त कर चुका है? अगर हर एक भारतीय हिंदु है, तो फिर घरवापसी जैसे कार्यक्रमो की आवश्यकता क्यां है? अगर हिंदुओं के बगैर ईस्लाम अधुर नहीं है, तो मुस्लिमों के बगैर हिंदुत्व कैसे अधुरा है? स्वतंत्रता के समय पश्चिम पाकिस्तान में करीब 20 प्रतिशत हिंदु थे औऱ अब वहां हिंदुओं की जनसंख्या केवल 1.86 प्रतिशत है. जबकी पूर्व पाकिस्तान यानि बांग्लादेश में आजादी के समय 25 प्रतिशत जितने हिंदु थे. लेकिन अब बांग्लादेश में हिंदु आठ प्रतिशत से भी कम है. क्या अतिसमावेशक हिंदुत्व के नाम पर आरएसएस के नेता ऐसे भयावह तथ्यों की अनदेखी नहीं कर रहे है?
भाजपा का कोंग्रेसीकरण औऱ आऱएसएस का गांधीकरण भारत के हिंदुओं के सामने सबसे बडी दो चुनौतियां है. कोंग्रेसीकरण के माध्यम से भाजपा मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल सदभावना के दिखावे के साथ औऱ ज्यादा झझून से कर रही है. राष्ट्रीय व वैश्विक सर्वस्वीकृति की अभिलाषा में महात्मा दिखने की चाह में आरएसएस द्वारा जाने-अनजानें में खुद का गांधीकरण हो रहा है. जब सेनापति की आवश्यकता होती है, तब महात्मा का नेतृत्व राष्ट्र को फायदा नहीं पहोंचाता है. 1947 में भारतने विभाजन कि विभिषिकाओं के रुप में सेनापति के स्थान पर महात्मा को देश का नेता बनाकर इसकी बडी भारी किंमत चुकाई है. आरएसएस की पहचान औऱ उदेश्य हिंदु यानि राष्ट्रीयता, हिंदुत्व ही राष्ट्रत्व और बलशाली हिंदुओं से समर्थ भारत केलिए है. कोंग्रेस और महात्मा गांधी की तुष्टिकरण की नीतिओं के परिणाम स्वरुप भारी नुकसान जेलने के बाद राजनीति के हिंदुकरण में अवरोध पेदा करनेवाले दो कारण है- भाजपा का कोंग्रेसीकरण और आरएसएस का गांधीकरण. यह भारत के 100 करोड हिंदुओं के साथ 1947 जैसे एक बडे विश्वासघात की शरूआत है.

(नोंध- आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत मुस्लिमों के बगैर हिंदुत्व को अधुरा ठहेरा रहे है. तब आशा रखता हुं कि मेरे आर्टिकल के प्रश्नों और इसमें व्यक्त कि गई चिंताओं तथा कुछ तथ्यों के प्रति हिंदुत्वना समावेशक तत्वो अने सर्वसमावेशकता के नाम खतरों को आमंत्रित करने की स्थितिओं के प्रति हिंदुओ को सतर्क रहेने कि आवश्यकता है. तथा महात्मा गांधी के समय में नेतृत्व के साथ डायलोग की ज्यादा गुंजाईश नहीं थी. लेकिन प्रवर्तमान समय में देश का नेतृत्व कर रहे महत्व के संगठनों में से एक आरएसएस के नेतागण हिंदुओं की चिंताओं के बारें में डायलोग की स्थिति का स्वागत करेंगे ऐसी आशा रखते है. यह आर्टिकल आऱएसएस औऱ उसके सरसंघाचलक का किसी भी रुप में अपमान या असम्मान के भाव से नहीं लिखा गया है. लेकिन हिंदुत्व को लेकर के कुछ चिंताओं पर चिंतन करना आवश्यक है. यह भारत के हिंदु युवाओं की चिंता का विषय भी है.क्योंकि हिंदुत्व बचेगा तो भारत का भी अस्तित्व और मजबूत होगा.. )

Saturday, September 22, 2018

ભારતના હિંદુઓ સાથે વધુ એક છેતરપિંડી: આરએસએસનું ગાંધીકરણ

આરએસએસ કેશવ-માધવના માર્ગે જ ચાલે....

ભારતના હિંદુઓ સાથે વધુ એક છેતરપિંડી: આરએસએસનું ગાંધીકરણ

-    પ્રસન્ન શાસ્ત્રી


-     (નોંધ- આરએસએસના હાલના સરસંઘચાલક મોહન ભાગવત મુસ્લિમો વગરના હિંદુત્વને અધુરું ગણાવી રહ્યા છે. ત્યારે આશા રાખું કે મારા આર્ટિકલના સવાલો અને તેમા વ્યક્ત કરવામાં આવેલી ચિંતા અને કેટલાક તથ્યો પ્રત્યે પણ હિંદુત્વના સમાવેશક તત્વોને ધ્યાનમાં રાખીને તેના પર ડાયલોગની સ્થિતિ પેદા કરે. આ આર્ટિકલ આરએસએસ અને તેના સરસંઘાચલકની કોઈપણ રીતે અવમાનના અથવા અનાદર નથી. પરંતુ હિંદુત્વને લઈને ચિંતા કરનારા એક યુવાનનું ચિંતન છે. )


ભારત હિંદુ રાષ્ટ્ર હોવાની ઘોષણા રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘના સંસ્થાપક અને પ્રથમ સરસંઘચાલક ડૉ. કેશવ બલિરામ હેડગેવારે કરી હતી. ભારતના લોકોની એક રાષ્ટ્ર તરીકે હિંદુ તરીકેની ઓળખ તેમની અંદર રહેલા મૂળતત્વ હિંદુત્વના આધારે છે. આ ઓળખ કોઈ પાંચ-પચ્ચીસ વર્ષોમાં પ્રાપ્ત થયેલી નથી. ભારતના રાષ્ટ્રત્વની હિંદુત્વ તરીકેની ઓળખ યુગોથી તેની સાથે જોડાયેલી અને વણાયેલી છે. અધર્મ સામે ધર્મને જીતાડવા માટે મહાભારત કરવું ભારતના હિંદુત્વની ઓળખ છે. ધર્મની સાબૂત રહેવાથી જ હિંદુત્વ યુગોથી ટક્યો છે. જ્યારે ભારતની ઓળખ સામે આયોજનબદ્ધ રીતે આક્રમણો થઈ રહ્યા હતા, ત્યારે ડૉ. હેડગેવારે કોંગ્રેસના ગરમદળને છોડીને વિજયાદશમીના પાવનપર્વે નાગપુર ખાતે 1925માં રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘની સ્થાપના કરી હતી, ત્યારે ભારત એક હિંદુરાષ્ટ્ર હોવાની અપાર શ્રદ્ધા તેમના મન અને હ્રદયમાં હતી. આ અપાર શ્રદ્ધા થકી જ રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘ ભારતના હિંદુ સમુદાય અને હિંદુત્વની આરાધના કરનારા લોકોના મન અને હ્રદયમાં સ્થાન પામી શક્યું છે.

ચર્ચા કરવામાં આવે છે કે રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘનું નામ હિંદુ સ્વયંસેવક સંઘ અથવા અન્ય કોઈ નામ રાખવામાં આવ્યું નથી. પરંતુ ડૉ. હેડગેવારના કાર્યદર્શન અને ચિંતનનો નિચોડ છે કે ભારત એક હિંદુ રાષ્ટ્ર છે અને હિંદુત્વ ભારતનું રાષ્ટ્રત્વ છે. જેને કારણે કદાચ હિંદુ શબ્દનો ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યો નથી. 1923માં સ્વતંત્ર્યવીર વિનાયક દામોદર સાવરકર દ્વારા લખવામાં આવેલા હિંદુત્વના વિચારદર્શનની સાથે પણ ડૉ. હેડગેવાર સંપૂર્ણપણે સંમત હતા. 

પરંતુ તાજેતરમાં રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘના છઠ્ઠા સરસંઘચાલક મોહનરાવ ભાગવતના નિવેદન ડૉ. હેડગેવારના હિંદુત્વના વિચાર અને હિંદુ રાષ્ટ્ર તરીકે ભારતની ઓળખની પુનર્સ્થાપનાની આકાંક્ષાઓને ભૂંસીને આરએસએસના ગાંધીકરણની પ્રક્રિયા વધુ વેગવંતી બનવા તરફ ઈશારો કરી રહ્યા છે. ભાજપનું કોંગ્રેસીકરણ દેશની રાજનીતિના હિંદુકરણની પ્રક્રિયાને ખોરવી ચુક્યું છે. તેવી જ રીતે ભારતની હિંદુ રાષ્ટ્રની ઓળખ પુનર્પ્રસ્થાપિત કરવા માટેની પ્રક્રિયાને આરએસએસના ગાંધીકરણની પ્રક્રિયા સંપૂર્ણપણે ખોરવી નાખશે. ભારતની હિંદુ રાષ્ટ્ર તરીકેની રાષ્ટ્રીય ઓળખ પ્રસ્થાપિત થયા બાદ ભારતને હિંદુ રાજ્ય તરીકે બંધારણીય માન્યતા સાથેની વૈશ્વિક ઘોષણાની પ્રક્રિયા આગળ વધી શકે તેમ છે. પરંતુ આરએસએસના સરસંઘચાલક મોહન ભાગવતના દિલ્હી ખાતે ભારતનું ભવિષ્ય- આરએસએસના દ્રષ્ટિકોણ કાર્યક્રમમાં કરેલા નિવેદનથી હિંદુત્વ સાથે સારોકાર ધરાવતા તમામ સંગઠનો અને વ્યક્તિઓમાં ખળભળાટ સાથે ચિંતનની સ્થિતિ છે અને આ ચિંતન એક ચિંતા સાથે સંબંધિત છે. સવાલ ઉઠી રહ્યો છે કે શું ડૉ. હેડગેવારના હિંદુત્વનિષ્ઠ સંગઠન પરિવર્તનના નામે સિદ્ધાંતોથી દૂર જઈ રહ્યું છે અને તેને છોડવાની પ્રક્રિયા તરફ આગળ વધી રહ્યું છે?
 
દિલ્હી ખાતેના કાર્યક્રમમાં મોહન ભાગવતે બંધારણની પ્રસ્તાવનામાં ભાતૃત્વ ભાવનાના વિકાસનો ઉલ્લેખ કરતા કહ્યુ હતુ કે વિવિધતામાં એકતા, સમભાવ અને એકબીજા પ્રત્યે આદર હિંદુત્વનો પણ સાર છે. ભાગવતે આગળ સ્પષ્ટતા કરતા કહ્યુ હતુ કે જો કોઈ કહેશે કે મુસ્લિમો નથી જોઈતા, તો હિંદુત્વ પણ ખતમ થઈ જશે. આરએસએસ બંધારણની પ્રસ્તાવનાના એક-એક શબ્દ સાથે માત્ર સંમત જ નથી, પરંતુ સંપૂર્ણ શ્રદ્ધા સાથે તેનું પાલન પણ કરે છે. 

ભારતના હિંદુઓ જેને દેશના રાષ્ટ્રત્વ અને હિંદુત્વના સંરક્ષક તરીકે જોઈ રહ્યા છે, તેવા રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘના છઠ્ઠા સરસંઘચાલક મોહન ભાગવતના નિવેદનથી મોટી ચિંતાઓ સાથે ચિંતન માટેના કેટલાક ગંભીર સવાલો પણ પેદા થયા છે. શું મુસ્લિમો વગર હિંદુત્વને અધુરું કહેવું મુસ્લિમો દ્વારા આઠ સદીઓ સુધી અપમાનિત થયેલા ભારતના હિંદુઓનું અપમાન નથી? શું સરસંઘચાલક મોહન ભાગવતે હિંદુત્વની વિચારધારાને છોડી દીધી છે અને સૈદ્ધાંતિક ઘાલમેલ કરીને આરએસએસને પણ માર્ગ ભ્રમિત કરીને અવળે રસ્તે લઈ જવાની કોઈ તૈયારી થઈ રહી છે? અથવા 2014માં ભાજપના જીત્યા બાદ દેશમાં હિંદુત્વને કારણે રાજકીય એકતા દર્શાવનારા હિંદુ સમાજની આકાંક્ષાઓને પુરી નહીં કરવાને કારણે 2019માં ભાજપને હારતું જોઈને મુસ્લિમ વોટર્સને જોડવા માટેની કોઈ તૈયારીના ભાગરૂપે ભાગવતને આવું નિવેદન કરવા માટે બાધ્ય બનવું પડયું છે? બારમી સદી પહેલા ભારતમાં મુસ્લિમો ન હતા, બારમી સદી પહેલા પણ ભારતમાં હિંદુત્વ હતું અને ભવિષ્યમાં પણ રહેવાનું છે. ત્યારે મુસ્લિમો વગર હિંદુત્વ અધુરું કેવી રીતે રહેશે? શું કોઈ મુસ્લિમે એમ કહ્યું છે કે હિંદુઓ વગર ઈસ્લામ અધુરો છે? વાત તો પાકિસ્તાન વગર ભારત અધુરું હોવાની હતી. પાકિસ્તાનનું બનવું હિંદુત્વના અનાદરનું પરિણામ હતું. ફરી એકવાર ચિકણી વાતોમાં હિંદુ સમાજને લપસાવીને દેશમાં ઠેરઠેર પાકિસ્તાનની માનસિકતા ધરાવતા લોકોને આવા નિવેદનોથી પ્રોત્સાહન નહીં મળે?

દિલ્હી ખાતેના કાર્યક્રમમાં આરએસએસના સરસંઘચાલક મોહન ભાગવતે સમાવેશી વિચારધારાને લઈને એક મોટું નીતિગત એલાન પણ કર્યું હતું. આ એલાન રાષ્ટ્રીય સ્વયંસેવક સંઘની સાથે સૈદ્ધાંતિક લાગણીઓ સાથે જોડાયેલા તમામ સ્વયંસેવકો માટે એક આંચકા સમાન હશે. મોહન ભાગવતે કહ્યુ હતુ કે આરએસએસના દ્વિતિય સરસંઘચાલક એમ. એસ. ગોલવલકરનું પુસ્તક બંચ ઓફ થોટ્સ શાશ્વત નથી. ભારતમાં રહેતા બિનહિંદુઓ પરના સંઘના વિચાર મામલે ભાગવતે એક સવાલના જવાબમાં કહ્યુ હતુ કે આવી વાતો કેટલીક પરિસ્થિતિઓમાં કોઈ ખાસ સંદર્ભમાં કહેવામાં આવી છે, તે શાશ્વત નથી. વિઝન એન્ડ મિશન- ગુરુજી નામના પુસ્તકમાં ગુરુજીના શાશ્વત વિચારોને સામેલ કરવામાં આવ્યા છે. કોઈ ખાસ પરિસ્થિતિઓમાં પેદા થયેલા એવા તમામ વિચારોને હટાવી દેવામાં આવ્યા છે.

2006માં આરએસએસના નાગપુર ખાતેના મુખ્યમથકથી જાહેર કરવામાં આવેલી એક બુકલેટ દ્વારા વી એન્ડ અવર નેશનહુડ ડિફાઈન્ડ પુસ્તકનો પહેલા જ અસ્વીકાર કરવામાં આવ્યો છે. 2006માં નાગપુરથી જાહેર કરવામાં આવેલી બુકલેટમાં દાવો કરવામાં આવ્યો હતો કે ગોલવલકરે આ પુસ્તકમાં જણાવ્યુ હતુ કે આમા તેમના પોતાના વિચાર સામેલ નથી, પરંતુ આ પુસ્તક બાબારાવ સાવરકરના પુસ્તક રાષ્ટ્ર મિમાંસાની સંક્ષિપ્ત પ્રતિ હતું.

જો કે બંચ ઓફ થોટ્સ ગુરુજીના વિચારોનું સંપુટ હોવાથી કોઈ ઈન્કાર કરી શકે તેમ નથી. ભાગવતે આના સંદર્ભે કહ્યુ હતુ કે આરએસએસ કોઈ સંકીર્ણ સંગઠન નથી. સમયની સાથે સંઘના વિચાર અને તેનું પ્રગટીકરણ પણ બદલાય છે. મહત્વપૂર્ણ છે કે ત્રણ દિવસીય લેક્ચર સીરિઝમાં ભાગવતે એકપણ વખત ગોલવલકરનો ઉલ્લેખ સુદ્ધાં કર્યો નથી. જો કે તેમણે આરએસએસના સંસ્થાપક ડૉ. હેડગેવારના જીવન સાથે જોડાયેલી ઘણી બાબતોનો ઉલ્લેખ કર્યો હતો. ત્યારે સવાલ એ પણ છે કે શું આરએસએસનું સૌથી વધુ લાંબો સમય સુધી માર્ગદર્શન કરનારા શ્રીગુરુજીના વિચારો સંકીર્ણ હતા? શું હેડગેવાર અને ગોલવલકરની હિંદુત્વની વિચારધારામાં કોઈ તફાવત હતો? શું ગુરુજીના હિંદુત્વનિષ્ઠ ચિંતનમાં કોઈ ખામી હતી અને તેઓ શું સંઘને કોઈ અન્ય માર્ગે લઈ ગયા હતા? એ કદાપિ ભૂલવું જોઈએ નહીં કે શ્રીગુરુજીએ ત્રેવીસ વર્ષો સુધી પોતાના જીવનના આખરી શ્વાસ સુધી આરએસએસની આગેવાની કરી હતી. આરએસએસ વર્ષોથી જે સાંસ્કૃતિક રાષ્ટ્રવાદની વાત કરી રહ્યું છે, તે વિચાર ગોલવલકરના ભારત રાષ્ટ્રની અવધારણામાંથી લેવામાં આવ્યો છે. આરએસએસ હવે સંગઠનના ગુરુ રહેલા એમ. એસ. ગોલવલકરના કેટલાક વિચારો સાથે સંમતિ ધરાવતું નથી અને ખુદમાં પરિવર્તન કરી રહ્યું હોવાનું કહેવું બિલકુલ એવું નથી કે જાણે કે કોઈ સંગઠન પોતાના પાયા ઉખાડી રહ્યું હોય?


પ્રવર્તમાન હિંદુત્વ આંદોલનને મજબૂત વૈચારીક ધરાતળ પુરું પાડવામાં વિનાયક દમોદર સાવરકરના 1923માં લખાયેલા પુસ્તક હિંદુત્વની ભૂમિકા રહેલી છે. સાવરકરે સિંધુ નદીથી સિંધુસાગર સુધી ફેલાયેલી ભારતભૂમિને પિતૃભૂમિ અને પુણ્યભૂમિ ધરાવતા તથા માનનારાઓને હિંદુ ગણાવ્યા છે. સાવરકરની હિંદુત્વની સંકલ્પનામાં સમાન રાષ્ટ્ર અને સમાન જાતિ પિતૃભૂમિ શબ્દમાં અને સમાન સંસ્કૃતિ પુણ્યભૂમિ શબ્દમાં અભિપ્રેત છે. હિંદુત્વ આંદોલન સાથે સંબધિત સૌ કોઇનું કહેવું છે કે હિંદુ શબ્દ સર્વસમાવેશક છે. હિંદુ શબ્દ ખુદમાં જ એટલો વ્યાપક છે કે તેની કોઈ સીમા હોવાનું માનવું માત્ર એક તર્ક છે. પરંતુ સાવરકર આના સંદર્ભે બિલકુલ સ્પષ્ટ હતા. સાવરકરે દ્રઢતાપૂર્વક મુસ્લિમો, ખ્રિસ્તીઓ, પારસીઓ અને યહુદીઓને હિંદુની પરિઘિથી બહાર રાખ્યા હતા. તેઓ કહેતા કે આ લોકોના શાસ્ત્રગ્રંથ, સંતગણ, વિચાર અને મહાપુરુષો આ ભૂમિમાં પેદા થયા નથી. તેમના નામ અને જીવનદ્રષ્ટિ વિદેશી મૂળની હોય છે. તેમની નિષ્ઠા પણ વિભાજીત હોય છે. સાવરકરે બિનહિંદુઓ માટે એક પ્રસ્તાવ પણ મૂક્યો હતો કે તેઓ બધાં મૂળ પ્રવાહમાં આવે, માર્ગ-વિચલિત સ્નેહીજનોના સ્વાગત માટે તત્પરતાથી રાહ જોઈ રહ્યા છીએ. તમારે માત્ર આપણા બધાની માતૃભૂમિ પ્રત્યે શ્રદ્ધા સમર્પિત કરીને આ ધરતીને પોતાની પુણ્યભૂમિ અને પિતૃભૂમિ તરીકે સ્વીકાર કરવાની છે. તમારા બધાનું હિંદુ સમાજમાં સ્વાગત છે. સાવરકરે ચેતવણી પણ આપી હતી કે જ્યાં સુધી આ લોકો હિંદુની વ્યાખ્યામાં નથી આવતા, ત્યાં સુધી માત્ર પક્ષગત ફાયદાઓ માટે તેનો ઉપયોગ કરવો યોગ્ય નથી. 

હિંદુત્વની વ્યાખ્યા સંદર્ભે પણ સાવરકર હંમેશા કહેતા હતા કે આ રાષ્ટ્રની વિશાળ બહુમતી પ્રજાએ હિંદુત્વને જે અર્થમાં સ્વીકાર્યું છે. તેના આધારે જ હિંદુત્વના મૂળતત્વને નિર્ધારીત કરવાનું છે. હિંદુઓને અસ્વીકાર્ય હોય તેવા કોઈપણ શાબ્દિક અર્થ આપવાથી સાવરકર દૂર રહ્યા હતા. આનું પ્રમાણ એ છે કે ભારતના બંધારણ પ્રમાણેના હિંદુ કોડમાં પણ પરોક્ષપણે સાવરકરની હિંદુત્વની વ્યાખ્યાનો જ સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો છે. 

સાવરકર સ્પષ્ટપણે હિંદુત્વ હિંદુઈજમથી વધુ વ્યાપક હોવાનું જણાવી ચુક્યા છે અને તેમણે હિંદુત્વને હિંદુઈજમ નહીં, પણ હિંદુનેસ એટલે કે હિંદુપણું ગણાવ્યું છે. હિંદુત્વને વ્યાપક અર્થમાં હિંદુડોમ એટલે કે સમગ્ર હિંદુ સમાજના હિંદુવિશ્વને ઈંગિત કરનાર ગણાવ્યું છે. સાવરકર દ્વારા હિંદુત્વ પુસ્તક કારાવાસ દરમિયાન લખાયું હતું અને 1923માં નાગપુર ખાતે યોગાનુયોગ તે પુસ્તક સાવરકરના અભિનવ ભારતના નિકટવર્તી સહયોગી અને હેડગેવારના ઘનિષ્ઠ સાથીદાર વિશ્વનાથ વિનાયક કેલકરના હાથમાં સૌથી પહેલા પહોંચ્યું હતું. આ પુસ્તકને વિશ્વનાથ વિનાયક કેલકરે સૌથી પહેલા પ્રકાશિત કરાવ્યું અને હિંદુત્વ પુસ્તકથી ડૉ. હેડગેવાર અત્યંત પ્રભાવિત હતા. સંઘના સંસ્થાપક ડૉ. કેશવરામ બલિરામ હેડગેવારની અધિકૃત જીવનકથાના લેખક ના. હ. પાલકરે પણ લખ્યુ છે કે નિશંકપણે ડોક્ટરજીના હિંદુત્વ અને હિંદુ રાષ્ટ્રીયતાના વિચારોમાં તથા આ પુસ્તક (હિંદુત્વ)માં વ્યક્ત કરવામાં આવેલા તર્કશુદ્ધ, સરળ અને સ્પષ્ટ વિચારોમાં જે સમાનતા હતી, તેનાથી ડૉ. હેડગેવારના આત્મવિશ્વાસમાં વધારો થયો. તેઓ આ પુસ્તકથી અત્યંત પ્રભાવિત થયા હતા અને તેઓ તમામ સ્થાનો પર આ પુસ્તકના વખાણ કરતા હતા.
 
વર્તમાન પરિપ્રેક્ષ્ય મેં હિંદુત્વ પુસ્તકમાં હિંદુત્વ કી વિભાવના- સાવરકર એવમમ સંઘ કા વર્તમાનકાલીન અભિપ્રાય નામના લેખમાં ડૉ. શ્રીરંગ ગોડબોલેએ જણાવ્યુ છે કે ડૉ. હેડગેવાર સાવરકરના વિચારો સાથે સંપૂર્ણપણે સંમત હતા. તેઓ બંને (સાવરકર અને હેડગેવાર) બે શરીર અને એક આત્મા હતા તેવું કહેવામાં કોઈ અતિશયોક્તિ નથી. બંને વચ્ચે માત્ર કોઈ મતભિન્નતા હતી, તો તે માત્ર ધ્વજની પસંદગે લઈને હતી. સાવરકર કૃપાણ, કુણ્ડલિની યુક્ત ભગવાધ્વજના પક્ષમાં હતા. તો ડૉ. હેડગેવાર પરંપરાગત ભગવા ધ્વજા પક્ષમાં હતા. ડૉ. શ્રીરંગ ગોડબોલેએ પોતાના લેખમાં સ્પષ્ટતાપૂર્વક જણાવ્યું છે કે સાવરકરની હિંદુત્વની સંકલ્પના સાથે સંઘના સંસ્થાપક ડૉ. હેડગેવાર સંપૂર્ણપણે સંમત હતા. ડૉ. હેડગેવારની વૈચારિક સ્પષ્ટતા તેમના આ ઉગ્ર શબ્દોમાં પ્રદર્શિત થાય છે. શ્રીરંગ ગોડબોલેએ પોતાના લેખમાં ડૉ. હેડગેવારને ટાંકીને જણાવ્યુ છે કે આજ સુધી જે પણ કોઈ વિદેશી પ્રજા ભારતમાં આવી, તે માત્ર અન્યાય, લૂંટફાટ, આક્રમણ અને દમનના ઈરાદે જ આવી હતી. તેમણે પોતાની આસૂરી વૃત્તિની ભૂખને તૃપ્ત કરવા માટે, આપણા તમામ સુંદર અને પવિત્ર સ્થાનોને નષ્ટ કરી દીધા. આ જ તેમનો ઈતિહાસ છે. આપણી જમીન હડપનારા આવા વિદેશીઓને આ દેશના અંગભૂત તથા હિંદુસ્થાનના સંતાન માનીને તેમને આપણા દેશવાસી તરીકે ગળે લગાવવાનો અર્થ છે કે આપણે આપણી બુદ્ધિ ગિરવે મૂકી છે. લેખમાં હેડગેવારને ટાંકીને મુસ્લિમો સંદર્ભે કહેવામાં આવ્યું છે કે હિંદુઓના કલ્યાણથી તેમના હિતોની હાનિ થાય છે, આવું માનનારા આપણા ભાઈઓ અથવા મિત્રો નથી, સચ્ચાઈ તો એ છે કે તેઓ આપણા પાડોશી બનવાની પણ યોગ્યતા ધરાવતા નથી. મુસ્લિમો માટે હેડગેવારે વિશ્વાસઘાતી શબ્દપ્રયોગ સંદર્ભે અસંમતિ વ્યક્ત કરતા કહ્યુ હતુ કે વિશ્વાસઘાતી મૂળભૂત રીતે આપણી અંદરનો હોય છે, મુસ્લિમો તો આ રાષ્ટ્રના મૂળ નિવાસી જ નથી. માટે તેમને આ રાષ્ટ્રના વિશ્વાસઘાતી નહીં, પરંતુ રાષ્ટ્રના શત્રુ કહેવા જ યોગ્ય છે. આ શબ્દોથી સ્પષ્ટ છે કે સંઘના સંસ્થાપક ડૉ. કે. બી. હેડગેવાર અત્યાધિક સમાવેશક હિંદુત્વના પક્ષધર ન હતા.
 
જો કે હેડગેવારની મૂળભાવનાને દરકિનાર કરીને સાઠના દશકથી લઈને ખાસ કરીને 1977 પછી સંઘની વિચારધારામાં હિંદુત્વ શબ્દને વધુ સમાવેશક બનાવવાની હોડ લાગી હતી. આની પાછળનો ઈરાદો કદાચ સંઘને રાષ્ટ્રીય-આંતરરાષ્ટ્રીય સ્તરે સર્વસ્વીકૃતિની કોઈ લલક હોવાની સંભાવના છે અથવા તો હિંદુત્વના સમર્થકોના સંગઠનને માર્ગભ્રમિત કરનારા તત્વોના વધી રહેલા પ્રભાવની કોઈ અસર હોવાની શક્યતા છે. સર્વસમાવેશક હિંદુત્વની વ્યાખ્યા કરવામાં અલગ-અલગ તબક્કે સંઘના નેતાઓ દ્વારા કહેવામાં આવ્યું છે કે ભારતની સાથે એકાત્મતા રાખનાર કોઈપણ હિંદુ છે- જેવાકે મુસ્લિમ હિંદુ, ખ્રિસ્તી હિંદુ. ભારતમાં  નિવાસ કરનારા અને ભારતીય સંસ્કૃતિને અનુસરનારા હિંદુ.. તમામ ભારતીયો હિંદુ છે.. ભારતીયત્વ જ હિંદુત્વ છે. માત્ર મુસ્લિમ અને ખ્રિસ્તી હોવાને કારણેજ કોઈની રાષ્ટ્રીયતામાં પરિવર્તન થતું નથી. પોતાને હિંદુ માનતા, હિંદુ ગણાતા તમામ હિંદુ..

ત્યારે સવાલ એ છે કે સંઘમાં તો ભગવાધ્વજ બાદ ડૉ. હેડગેવારનું જ આદરણીય સ્થાન છે. ત્યારે અતિસમાવેશક હિંદુત્વનો વિચાર નહીં કરનારા હેડગેવારની વિચારધારાથી વિચલિત થવાની જરૂરિયાત પર આરએસએસ મનોમંથન કરશે કે શુ આજની પરિસ્થિતિઓમાં એવું કોઈ પરિવર્તન આવ્યું છે કે મોટી સંખ્યામાં ભારતના મુસ્લિમો અને ખ્રિસ્તિઓ ફરીથી હિંદુ બનવા માટે ઈચ્છુક અને ઉત્સુક હોય? ખુદને હિંદુ કહેવડાવા માટે તૈયાર નથી તેવા મુસ્લિમો અને ખ્રિસ્તીઓને હિંદુ કહેવું અતિરેકની પરાકાષ્ઠા નથી? શું માત્ર સંઘની ઈચ્છાને કારણે હિંદુ સમાજ પોતાની માનસિકતામાં કોઈપણ અણછાજતું પરિવર્તન કરી લેશે? ખ્રિસ્તી અને મુસ્લિમ મજહબમાં પોતાના પંથને નહીં માનનારાઓને દુશ્મન તરીકે માન્યતા આપવામાં આવી છે અને શું સંઘ આવી સચ્ચાઈની સામે આંખ આડા કાન કરીને હિંદુ સમાજને વધુ મુસીબતમાં ધકેલી રહ્યું નથી? શું સંઘને અતિ સમાવેશક હિંદુત્વના મામલે સંતો અને ધર્માચાર્યો સહીતના સામાજિક, ધાર્મિક અને સાંસ્કૃતિક સંગઠનોનું સમર્થન પ્રાપ્ત થઈ શક્યું છે? જો તમામ ભારતીય હિંદુ હોય, તો ઘરવાપસી જેવા કાર્યક્રમો શા માટે ચાલી રહ્યા છે? જો હિંદુઓ વગર ઈસ્લામ અધુરો નથી, તો મુસ્લિમો વગર હિંદુત્વ કેવી રીતે અધરું ગણી શકાય? આઝાદી વખતે પશ્ચિમ પાકિસ્તાનમાં 20 ટકા આસપાસ હિંદુઓ હતા અને હાલ ત્યાં હિંદુઓની વસ્તી બે ટકાથી પણ નીચે છે. તો પૂર્વ પાકિસ્તાન અટલે કે હાલના બાંગ્લાદેશમાં પણ આઝાદી વખતે 25 ટકાની આસપાસ હિંદુઓ હતા અને હાલ અહીં માત્ર સાત કે આઠ ટકા હિંદુઓ બાકી બચ્યા છે. શું અતિ સમાવેશક હિંદુત્વના નામે આરએસએસ આવા તથ્યોની અણદેખી કરી શકે?

ભાજપનું કોંગ્રેસીકરણ અને આરએસએસનું ગાંધીકરણ ભારતના હિંદુઓ સામેના બે મોટા પડકાર છે. કોંગ્રેસીકરણ થકી ભાજપ દ્વારા મુસ્લિમ તુષ્ટિકરણનો ખેલ સદભાવનાના આડંબર હેઠળ કોંગ્રેસ કરતા પણ વિશેષ લગાવની સાથે થઈ રહ્યો છે. રાષ્ટ્રીય અને આંતરરાષ્ટ્રીય સ્તરે સર્વસ્વીકાર્યતાની લલકમાં મહાત્માપણું ઓઢવા મથતુ આરએસએસ ખુદનું ગાંધીકરણ કરી રહ્યું છે. જ્યારે સેનાપતિની જરૂર હોય, ત્યારે મહાત્માની નેતાગીરી નુકસાનકારક હોય છે. 1947માં ભારતના વિભાજન થકી સેનાપતિના સ્થાને મહાત્માને નેતા બનાવીને દેશ આની કિંમત ચુકવી ચુક્યો છે. આરએસએસની ઓળખ અને ઉદેશ્ય હિંદુ એટલે રાષ્ટ્રીયતા, હિંદુત્વ એટલે રાષ્ટ્રત્વ અને બળશાળી હિંદુઓથી સમર્થ ભારત માટેની હતી. કોંગ્રેસ અને મહાત્મા ગાંધીની ચિલાચાલુ નીતિઓના નુકસાનને અનુભવ્યા બાદ રાજનીતિના હિંદુકરણમાં અડચણ પેદા કરનાર ભાજપનું કોંગ્રેસીકરણ અને આરએસએસના ગાંધીકરણ ભારત અને ભારતના હિંદુ સમાજ સાથે 1947 જેવી જ એક વધુ છેતરપિંડીના મંડાણ છે. 


(નોંધ- આરએસએસના હાલના સરસંઘચાલક મોહન ભાગવત મુસ્લિમો વગરના હિંદુત્વને અધુરું ગણાવી રહ્યા છે. ત્યારે આશા રાખું કે મારા આર્ટિકલના સવાલો અને તેમા વ્યક્ત કરવામાં આવેલી ચિંતા અને કેટલાક તથ્યો પ્રત્યે પણ હિંદુત્વના સમાવેશક તત્વોને ધ્યાનમાં રાખીને તેના પર ડાયલોગની સ્થિતિ પેદા કરે. આ આર્ટિકલ આરએસએસ અને તેના સરસંઘાચલકની કોઈપણ રીતે અવમાનના અથવા અનાદર નથી. પરંતુ હિંદુત્વને લઈને ચિંતા કરનારા એક યુવાનનું ચિંતન છે. )