आरएसएस केशव-माधव के मार्ग पर ही चले...
भारत के हिंदुओं के साथ एक और विश्वासघात: आरएसएस का गांधीकरण
प्रसन्न शास्त्री
भारत हिंदु राष्ट्र होने की घोषणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवम प्रथम सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवारने अपने जीवनकाल में ही कर दी थी. भारत के लोगों की एक राष्ट्र के रुप में हिंदु की पहचान उनके अंतर्निहित मूलतत्व हिंदुत्व के कारण ही है. यह पहचान कोई पांच-पच्चीस सालों में प्राप्त नहीं हुई है. भारत के राष्ट्रत्व की हिंदु के रुप मे पहचान युगो से उसके साथ संलग्न है. अधर्म के सामने धर्म को विजयी बनाने के उदेश्य से महाभारत करना हिंदुत्व की पहचान है. धर्म के संरक्षित रहेने के कारण ही हिंदुत्व युगों से अनेक चुनौतियों के रहेते भी अडिग रहा है.
जब भारत की
पहचान मिटाने हेतु योजनाबद्द तरीकों से अनेक आक्रमण हो रहे थे. तब डॉ. हेडगेवारने
कोंग्रेस छोड के एक नया क्रांतिपथ तैयार करने के उदेश्य से विजयादशमी के पावनपर्व
पर नागपुर में 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. तब भारत के एक
हिंदु राष्ट्र होने की अपार श्रद्धा उनके मन-ह्रदय में थी. इसी अपार श्रद्धा के
कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के हिंदु समाज और हिंदुत्व की आराधना करनेवालों
के मन और ह्रदय में अमिट स्थान बना शका है.
दलीलें दि जाती
है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का नाम हिंदु स्वयंसेवक संघ अथवा अन्य कोई नाम नहीं
रखा गया है. किन्तु डॉ. हेडगेवार के कार्यदर्शन और चिंतन का निचोड हे कि भारत एक
हिंदु राष्ट्र है और हिंदुत्व भारत का राष्ट्रत्व है. जिसके कारण शायद उन्होंने
हिंदु शब्द को घोषितरूप से उल्लेखित करना आवश्यक नहीं समजा होगा. हमें ये याद रखना
चाहिए कि एकमात्र हिंदु राष्ट्र भारत के अलावा विश्व के अन्य देशों में हिंदु
स्वयंसेवक संघ है. 1923 में स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित
हिंदुत्व के विचारदर्शन से डॉ. हेडगेवार पूर्णरूप से सहमत थे. लेकिन हाल ही में
आरएसएस के छठ्ठे सरसंघचालक मोहनराव भागवत द्वारा दिये गये एक वक्तव्य से डॉ.
हेडगेवार के हिंदुत्व के विचार और हिंदु राष्ट्र के रुप में भारत की पहचान को
पुनर्स्थापित करने की आकांक्षाओं को मिटाकर आरएसएस के गांधीकरण की प्रक्रिया
ज्यादा गति से आगे बढने कि ओर संकेत कर रहा है.
भाजपा का
कॉंग्रेसीकरण देश की राजनीति के हिंदुकरण की प्रक्रिया को पटरी पर से उतार चुका
है. उसी प्रकार भारत की हिंदु राष्ट्र के रुप में पहचान को पुनर्स्थापित करने की
100 करोड हिंदुओं की आकांक्षाओं को आरएसएस के गांधीकरण की प्रक्रिया संपूर्णरूप से
तहस-नहस कर देंगी. भारत की हिंदु राष्ट्र के रुप में राष्ट्रीय पहचान पुनस्थापित
होने के बाद भारत को संवैधानिक रुप सें हिंदु राज्य के रुप में वैश्विक घोषणा की
प्रक्रिया आगे बढ शकती है. लेकिन आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के दिल्ली में
आय़ोजित भारत का भविष्य- आरएसएस का द्रष्टिकोण, कार्यक्रम में कि गई टीप्पणी से
हिंदुत्व केलिए जीवन खपानेवाले तमाम संगठन औऱ व्यक्तिओं में अपने समर्पित जीवन
उदेश्य के प्रति चिंता के साथ एक चिंतन की स्थिति भी बन चुकी है. प्रश्न उठ रहा है कि क्या डॉ. हेडगेवार का हिंदुत्वनिष्ठ संगठन
परिवर्तन के नाम पर अपने मूलभूत सिद्धांतो से दूर जा रहा है और उन सिद्धांतों को
छोडने कि दिशा में आगे बढ रहा है ?
दिल्ली में
आयोजित कार्यक्रम में मोहन भागवतने संविधान की प्रस्तावना में भ्रातृत्व भावना के
विकास के संदर्भ में बात करते हुए कहा था कि विविधता में एकता, समभाव और एकदूसरे
के प्रति सम्मान हिंदुत्व का भी सार है. भागवतने आगे स्पष्टता करते हुए कहा था कि जो कोई कहेगा कि मुस्लिम स्वीकार्य नहीं है, तो हिंदुत्व भी खतम
हो जायेंगा. आरएसएस संविधान की प्रस्तावना के एक-एक शब्द के साथ
मात्र सहमत हीं नहीं है, अपितु पूर्ण श्रद्धा के साथ उसका अनुसरण भी करता है.
भारत के करोडों
हिंदु जिसे देश के राष्ट्रत्व और हिंदुत्व के संरक्षक के रुप में देख रहे है, एसे
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत का वक्तव्य बडी
चिंताओं के साथ चिंतन के कई गंभीर प्रश्नों को भी जन्म दे रहा है. प्रश्न उठ रहे
है कि – क्या मुस्लिमों के बगैर हिंदुत्व को अधुरा कहेना मुस्लिमों द्वारा आठ शताब्दिओं
तक अपमानित हुए भारत के हिंदुओं का घोर अपमान नहीं है ? क्यां सरसंघचालक मोहन
भागवतने हिंदुत्व की विचारधारा को छोड दिया है और क्यां सैद्धांतिक भ्रष्टताओं के
माध्यम से आरएसएस को भ्रमित करते कोई अलग रास्ते पर मोडने कि या ले जाने की तैयारी
हो रही है ? क्या 2014 के आम चुनावों में भाजपा की जीत के बाद देश में हिंदुत्व की
भावना के चलते राजनीतिक एकता के दिखानेवाले हिंदु समाज की आकांक्षाओं की पूर्ति
नहीं होने के कारण 2019 के आम चुनावों में भाजपा को हारता देख मुस्लिम मतदाताओं को
उसके साथ जोडने केलिए कोई तैयारी के कारण भागवत को ऐसी टीप्पणी करने केलिए बांध्य
होना पडा है ? 12वी शताब्दि से पहेले भारत में मुस्लिम थे हीं नहीं, लेकिन 12वी
शताब्दि से पहेले भी भारत में हिंदुत्व था औऱ भविष्य में भी रहेनेवाला है. तब सवाल
ये उठता है कि मुस्लिमों के बगैर हिंदुत्व अधुरा कैसे ? क्या इस्लाम के अस्तित्व के 1400 वर्षो के कालखंड में किसी भी मुस्लिम
शासक से लेकर के एक आम मुस्लिमने कभी कहा है कि हिंदुओं के बगैर उनका इस्लाम किसी
भी रुप में अधुरा है ? बात तो आज तक होती आई है
और आगे भी होगी कि पाकिस्तान के बगैर भारत अधुरा है. हिंदुओं के प्रति नफरत का
परिणाम है पाकिस्तान. तो क्या फिर एक बार ऐसी बातें करके भारत के हिंदुओं को निराश
करके पाकिस्तानवादी मानसिकतावाले लोगों का होंशला बढाने का पाप नहीं हो रहा है ?
दिल्ली में
आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत के समावेशी विचारधारा को लेकर के एक बडी नीतिगत
घोषणा की थी. यह घोषणा संघ के साथ सैद्धांतिक भावनाओं के कारण जुडे हुए तमाम
स्वयंसेवको केलिए एक आघात के समान होगी. मोहन
भागवतने कहा था कि संघ के द्वितिय सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर की पुस्तक बंच ओफ
थोट्स शाश्वत नहीं है. भारत में रहनेवाले हर गैर-हिंदुओं पर संघ के विचार के बारे
में बातचीत करते हिए भागवतने एक प्रश्न का उतर देते हुए कहा था कि ऐसी बाते कुछ
स्थिति में कोई विशेष संदर्भ में कही गई थी. जो शाश्वत नहीं थी. विजन एन्ड
मिशन-गुरुजी नाम की पुस्तक में गुरुजी के शाश्वत विचारो को सामिल किया गया है. कोई
विशेष स्थितिओं मे पेदा हुए ऐसे तमाम विचारो को हटा दिया गया है.
यहा पर याद रखना
चाहिए कि 2006 में नागपुर के संघ मुख्यालय से जारी की गई एक बुकलेट के माध्यम से
वी एन्ड अवर नेशनहुड डिफाईन्ड पुस्तक को पहेले ही अस्वीकार्य घोषित की गई है. 2006
में जारी कि गई बुकलेट में दावा किया गया था कि गोलवलकरने इस पुस्तक में कहा था कि
इस में उनके विचार सामिल नहीं है. लेकिन बाबाराव सावरकर की पुस्तक राष्ट्रमिमांसा
की यह संक्षिप्त प्रति है.
हालाकि बंच ओफ थोट्स गुरुजी के विचारों का संपुट होने से कोई इन्कार नहीं कर शकता है. भागवतने बंच ओफ थोट्स के बारें में बात करते हुए कहा था कि आरएसएस कोई संकीर्ण विचारोवाला संगठन नहीं है. समय के साथ संघ के विचार और उसका प्रगटीकरण भी बदला है. यहां एक और चीज गौर करने लायक है कि दिल्ली की त्रिदिवसिय व्याख्यानमाला में भागवतने एकबार भी गोलवलकर का उल्लेख करना ठीक नहीं समजा था. हालाकि मोहन भागवतने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जीवन से जुडी कई बातों का उल्लेख किया था. तब प्रश्न यह भी उठतें है कि क्या आऱएसएस का सबसे लंबे समय तक मार्गदर्शन करनेवाले श्रीगुरुजी के विचार संकीर्ण थे ? क्या डॉ. हेडगेवार और श्रीगुरुजी की हिंदुत्व की विचारधारा में कोई अंतर था ? क्या श्रीगुरुजी के हिंदुत्वनिष्ठ चिंतन में कोई त्रुटि थी औऱ क्या वह संघ को कोई अन्य मार्ग पर ले गये ?
हालाकि बंच ओफ थोट्स गुरुजी के विचारों का संपुट होने से कोई इन्कार नहीं कर शकता है. भागवतने बंच ओफ थोट्स के बारें में बात करते हुए कहा था कि आरएसएस कोई संकीर्ण विचारोवाला संगठन नहीं है. समय के साथ संघ के विचार और उसका प्रगटीकरण भी बदला है. यहां एक और चीज गौर करने लायक है कि दिल्ली की त्रिदिवसिय व्याख्यानमाला में भागवतने एकबार भी गोलवलकर का उल्लेख करना ठीक नहीं समजा था. हालाकि मोहन भागवतने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जीवन से जुडी कई बातों का उल्लेख किया था. तब प्रश्न यह भी उठतें है कि क्या आऱएसएस का सबसे लंबे समय तक मार्गदर्शन करनेवाले श्रीगुरुजी के विचार संकीर्ण थे ? क्या डॉ. हेडगेवार और श्रीगुरुजी की हिंदुत्व की विचारधारा में कोई अंतर था ? क्या श्रीगुरुजी के हिंदुत्वनिष्ठ चिंतन में कोई त्रुटि थी औऱ क्या वह संघ को कोई अन्य मार्ग पर ले गये ?
ये बात सदैव याद रहनी चाहिए कि
श्रीगुरुजीने 23 वर्षो तक और अपने जीवन के आखरी पल तक संघ का नेतृत्व किया था.
आऱएसएस जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात कर रहा है, वह विचार श्रीगरुजी के भारत
राष्ट्र की अवधारणा में से ही तो लिया गया है. आरएसएस अप संगठन के गुरु रहे एम.
एस. गोलवलकर के कुछ विचारों से सहमत नहीं है औऱ खुद में परिवर्तन कर रहा है, यह
कहना बिलकुल ऐसा नहीं है कि जैसे कोई संगठन अपनी नींव खोद के फेंकने पर उतारुं हो ?
प्रवर्तमान हिंदुत्वनिष्ठ आंदोलन को मजबूत वैचारीक बल प्रदान करने में
विनायक दामोदर सावरकर की 1923 में लिखित पुस्तक हिंदुत्व की एक बडी भूमिका रही है.
सावरकरने सिंधु नदी से सिंधुसागर तरक फेली भारतभूमि
में पितृभूमि औऱ पुण्यभूमि वाले औऱ ऐसा माननेवाले लोंगो को हिंदु कहा था. सावरकर
की हिंदुत्व की संकल्पना में समान राष्ट्र और समान जाति पितृभूमि शब्द में औऱ समान
संस्कृति पुण्यभूमनि शब्द में सामिल है. आज हिंदुत्वनिष्ठ आंदलन के
साथ संबंधित प्राय हर कोई यह कहता है कि हिंदु शब्द सर्वसमावेशक है. हिंदु शब्द
स्वयं इतना व्यापक है कि उसकी कोई सीमा होने की बात को मानना एक तर्क है. लेकिन
सावरकर इस बारे में बिलकुल स्पष्ट थे. सावरकरने
द्रढतापूर्वक मुस्लिमो, ईसाईओं पारसीओं और यहुदीओं को हिंदु की परिघि से बहार रखा
था. वो कहते थे कि यह लोगों के शास्त्रग्रंथ, संतगण, विचार औऱ महापुरुष इस भूमि
में पेदा नहीं हुए है. उनके नाम औऱ जीवनद्रष्टि विदेशी मूल की है. उनकी निष्ठा भी
विभाजित है. सावरकरने गैरहिंदुओ केलिए एक प्रस्ताव भी रखा था कि वह सब मूल धारामें
सम्मलित हो जायें, मार्ग विचलित स्नेहीजनो के स्वागत की तत्परता से हम (हिंदु) राह
देख रहे है. आपको केलल हम सबकी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा समर्पित कर के इस भूमि
को अपनी पुण्यभूमि औऱ पितृभूमि स्वीकार करना है. आप सब का हिंदु समाज में स्वागत
है. सावरकरने चेतवानी भी दी थी कि जब तक यह लोंग हिंदु की परिभाषा में नहीं आते
है, तब तक मात्र दलगत लाभ केलिए इनका उपयोग करना ठीक नहीं है.
हिंदुत्व की परिभाषा के बारे में
सावरकरने सदैव कहा था कि यह राष्ट्र की विशाल बहुसंख्यक जनताने हिंदुत्व को जिस
अर्थ में स्वीकार किया है, उसी के आधार पर हिंदुत्व के मूलतत्वो को निर्धारीत करना
है. हिंदुओं को अस्वीकार्य ऐसे किसी भी शाब्दिक अर्थ देने से सावरकर दूर रहे थे. इसका प्रमाण यह है कि भारत के
संविधान से बने हिंदु कोड में भी परोक्षरुप से सावरकर की हिंदुत्व की परिभाषा का
स्वीकार किया गया है.
सावरकर स्पष्ट रुप से हिंदुत्व हिंदुइज्म से ज्यादा व्यापक होने की
बात बता चुके है और उन्होंने हिंदुत्व को हिंदुइज्म नहीं, पर हिंदुनेस कहेना उचित
समजाथा. हिंदुत्व को व्यापक अर्थ में हिंदुडोम यानि समग्र हिंदु समाज के हिंदु
विश्व को अभिव्यक्त करनेवाला बताया था.
कारावास के
दौरान सावरकरने हिंदुत्व पुस्तक लिखी थी और 1923 में नागपुर में वह पुस्तक सावरकर
के अभिनव भारत के निकटवर्ती सहयोगी औऱ हेडगेवार के घनिष्ठ सहयोगी विश्वनाथ विनायक
केलकर के हाथ में सबसे पहेले पहोंची थी. यह पुस्तक को विश्वनाथ विनायक केलकरने
सबसे पहेले प्रकाशित करवाई थी औऱ हिंदुत्व पुस्तक से डॉ. हेडगेवार अत्यंत प्रभावित
हुए थे. संघ के संस्थापक डॉ. के. बी. हेडगेवार की
अधिकृत जीवनकथा के लेखक ना. ह. पालकरने लिखा है कि निशंकरुप से डॉक्टरजी के
हिंदुत्व औऱ हिंदु राष्ट्रीयता के विचारो में तथा इस पुस्तक में व्यक्त किए गये
तर्कशुद्ध, सरल व स्पष्ट विचारों में जो समानता थी, उससे डॉ. हेडगेवारना
आत्मविश्वास बढा था. हिंदुत्व पुस्तक से डॉ. हेडगेवार अत्यंत प्रभावित थेऔऱ वह हर
स्थान पर इस पुस्तक की प्रशंसा करते थे.
अहमदाबाद में
थोडे वर्षो पहेले एक सेमिनार हुआ था, उसके व्याख्यान कों एक पुस्तक का स्वरुप दिया
गया था. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदुत्व नामक पुस्तक में हिंदुतव की विभावना-
सावरकर एवम संघ का वर्तमानकालिन अभिप्राय नाम से डॉ. श्रीरंग गोडबोले के एक
आर्टिकल को भी पुस्तक में स्थान दिया गया है. डॉ. गोडबोले सावरकरजी से संबंधित
साहित्य और विचारो के अच्छे अध्ययनकर्ता है. इस
आर्टिकल में डॉ. गोडबोले ने कहा है कि डॉ. हेडगेवार सावरकर के विचारो से पूर्णत्
सहमत थे. वो दोनों (सावरकर औऱ हेडगेवार) दो शरीर और एक आत्मा थे, ऐसा कहना कोई
अतिशयोक्ति नहीं होगी. दोनों के बीच कोई मतभिन्नताथी तो, वह मात्र ध्वज को लेकर के
थी. सावरकर कृपाण, कुण्डलिनी युक्त भगवाध्वज के पक्षधर थे, तो डॉ. हेडगेवार
परंपरागत भगवा ध्वज के पक्षधर थे. आर्टिकल में डॉ. श्रीरंग गोडबोलेने लिखा है कि
सावरकर की हिंदुत्व की संकल्पना के साथ संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार पूर्णत् सहमत
थे. डॉ. हेडगेवार की वैचारीक स्पष्टता उनके यह उग्र शब्दों में अभिव्यक्त हो रही
है. आर्टिकल के मुताबिक हेडगेवारने कहा था कि आज तक जो भी कोई विदेशी लोग भारत में
आये है, वह केवल अन्याय, लूंट, आक्रमण औऱ दमन के इरादे से आये थे. उन्होंने अपनी
आसूरी वृति की भूख को संतुष्ट करने केलिए हमारे तमाम सुंदर औऱ पवित्र स्थानों को नष्ट
कर दिया. यही एसे लोगों का इतिहास रहा है. हमारी जमीन को छीननेवाले ऐसे विदेशीओं
को इस देश के अंगभूत तथा हिंदुस्थान की संतान मान के उनको हमारे देशवासीओं के रुप
में गले लगाने का अर्थ है कि हमने हमारी बुद्धि गिरवी रख दी है.
आर्टिकल में हेडगेवार द्वारा मुस्लिमों के संदर्भे कही गई बात भी लिखी गई है, उसके
मुताबिक – हिंदुओं के कल्याण से उनके हितो की हानी होती है, यह माननेवाले हमारे
भाई अथवा मित्र नहीं है, सच्चाई तो यह है कि वह हमारे पडोशी बनने की योग्यता भी
नहीं रखते है. मुस्लिमों केलिए हेडगेवारने विश्वासघाती शब्द के प्रयोग के बारे में
भी असहमति व्यक्त करके कहा था कि विश्वासघाती मूलभूतरुप से हमारे अंदर के होते है,
मुस्लिम तो इस राष्ट्र के मूल निवासी ही नहीं है. इसलिए उन्हे इस राष्ट्र के
विश्वासघाती नहीं, अपितु राष्ट्र के शत्रु कहेना ही योग्य है. यह शब्दों से स्पष्ट
संकेत मिल रहे है कि संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार अत्याधिक समावेशक हिंदुत्व की
परिभाषा के पक्षधर नही थे.
हालाकि
हेडगेवार कि मूलभावना को दरकिनार करके साठ के दशक से लेकर के विशेषरुप से 1977 के
बाद संघ की विचारधारा में हिंदुत्व शब्द को ज्यादा समावेशक बनाने की होड सी लगी
रही थी. शायद उदेश्य हो शक्ता है कि संघ को राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर पर सर्वस्वीकृति
की कोई ललक लग गई हो अथवा हिंदुत्व के आंदोलन को अपने मार्ग से विचलित करनेवाले
तत्वो की आलोचना का प्रभाव संघ के नीतिनिर्धारको पर असर जमाने में सफल रहा हो ऐसी
संभावना हो शक्ती है.
सर्वसमावेशक हिंदुत्व की परिभाषा करने के अलग-अलग कालखंडो में संघ के
नेताओं के द्वारा कहा गया है कि भारत के साथ ऐकात्मता रखनेवाला हर कोई हिंदु है-
जैसे कि मुस्लिम हिंदु, ईसाई हिंदु. भारत में निवास करनेवाला औऱ भारतीय संस्कृति
के अनुरूप आचरण करनेवाला हिंदु. हर भारतीय हिंदु है. भारतीयत्व ही हिंदुत्व है.
केवल मुस्लिम औऱ ईसाई होने के कारण कोई व्यक्ति की राष्ट्रीयता परिवर्तित होती
नहीं है. खुद को हिंदु माननेवाला, हिंदु कहे जानेवाला हर कोई हिंदु है.
तब प्रश्न उठते
है कि संघ में भगवा ध्वज के बाद डॉ. हेडगेवार का ही स्थान सबसे ज्यादा आदरणीय है,
तब अतिसमावेशक हिंदुत्व का विचार नहीं करनेवाले हेडगेवार की विचारधारा से विचलित
होने की आवश्यकता पर आरएसएस मंथन करेगा? क्यां आज की स्थितिओं में
ऐसा कोई परिवर्तन हुआ है कि बडी संख्या में भारत के मुस्लिम औऱ ईसाई फिर से हिंदु
बनने के ईच्छुक या उत्सुक हो? स्वयं को हिंदु कहेलवाने
में अपमान माननेवाले मुस्लिम व ईसाई को हिंदु कहेना अतिरेक की पराकाष्ठा नहीं है? क्यां केवल संघ की ईच्छा के कारण हिंदु समाज अपने विचारों में
परिवर्तन कर लेगा? ईसाई व मुस्लिमो के मजहबी विचारों में अपने पंथ को नहीं माननेवालो को
शत्रु की मान्यता दी गई है और क्यां संघ ऐसी सच्चाई की उपेक्षा करके हिंदुओं केलिए
ज्यादा बडी मुश्किल खडी नहीं कर रहा है? क्या संघ अतिसमावेशक हिंदुत्व के मामले में संतो-धर्माचार्यो तथा
सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक संगठनों से विचारविमर्श करके समर्थन प्राप्त कर
चुका है? अगर हर एक भारतीय हिंदु है, तो फिर घरवापसी जैसे कार्यक्रमो की
आवश्यकता क्यां है? अगर हिंदुओं के बगैर ईस्लाम अधुर नहीं है, तो मुस्लिमों के बगैर
हिंदुत्व कैसे अधुरा है? स्वतंत्रता के समय पश्चिम
पाकिस्तान में करीब 20 प्रतिशत हिंदु थे औऱ अब वहां हिंदुओं की जनसंख्या केवल 1.86
प्रतिशत है. जबकी पूर्व पाकिस्तान यानि बांग्लादेश में आजादी के समय 25 प्रतिशत
जितने हिंदु थे. लेकिन अब बांग्लादेश में हिंदु आठ प्रतिशत से भी कम है. क्या
अतिसमावेशक हिंदुत्व के नाम पर आरएसएस के नेता ऐसे भयावह तथ्यों की अनदेखी नहीं कर
रहे है?
भाजपा का कोंग्रेसीकरण औऱ आऱएसएस का गांधीकरण भारत के हिंदुओं के सामने
सबसे बडी दो चुनौतियां है. कोंग्रेसीकरण के माध्यम से भाजपा मुस्लिम तुष्टिकरण का
खेल सदभावना के दिखावे के साथ औऱ ज्यादा झझून से कर रही है. राष्ट्रीय व वैश्विक
सर्वस्वीकृति की अभिलाषा में महात्मा दिखने की चाह में आरएसएस द्वारा जाने-अनजानें
में खुद का गांधीकरण हो रहा है. जब सेनापति की आवश्यकता होती है, तब महात्मा का नेतृत्व
राष्ट्र को फायदा नहीं पहोंचाता है. 1947 में भारतने विभाजन कि विभिषिकाओं के रुप
में सेनापति के स्थान पर महात्मा को देश का नेता बनाकर इसकी बडी भारी किंमत चुकाई
है. आरएसएस की पहचान औऱ उदेश्य हिंदु यानि राष्ट्रीयता, हिंदुत्व ही राष्ट्रत्व और
बलशाली हिंदुओं से समर्थ भारत केलिए है. कोंग्रेस और महात्मा गांधी की तुष्टिकरण
की नीतिओं के परिणाम स्वरुप भारी नुकसान जेलने के बाद राजनीति के हिंदुकरण में
अवरोध पेदा करनेवाले दो कारण है- भाजपा का कोंग्रेसीकरण और आरएसएस का गांधीकरण. यह
भारत के 100 करोड हिंदुओं के साथ 1947 जैसे एक बडे विश्वासघात की शरूआत है.
(नोंध- आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत मुस्लिमों के बगैर हिंदुत्व को
अधुरा ठहेरा रहे है. तब आशा रखता हुं कि मेरे आर्टिकल के प्रश्नों और इसमें व्यक्त
कि गई चिंताओं तथा कुछ तथ्यों के प्रति हिंदुत्वना समावेशक तत्वो अने
सर्वसमावेशकता के नाम खतरों को आमंत्रित करने की स्थितिओं के प्रति हिंदुओ को
सतर्क रहेने कि आवश्यकता है. तथा महात्मा गांधी के समय में नेतृत्व के साथ डायलोग
की ज्यादा गुंजाईश नहीं थी. लेकिन प्रवर्तमान समय में देश का नेतृत्व कर रहे महत्व
के संगठनों में से एक आरएसएस के नेतागण हिंदुओं की चिंताओं के बारें में डायलोग की
स्थिति का स्वागत करेंगे ऐसी आशा रखते है. यह आर्टिकल आऱएसएस औऱ उसके सरसंघाचलक का
किसी भी रुप में अपमान या असम्मान के भाव से नहीं लिखा गया है. लेकिन हिंदुत्व को
लेकर के कुछ चिंताओं पर चिंतन करना आवश्यक है. यह भारत के हिंदु युवाओं की चिंता
का विषय भी है.क्योंकि हिंदुत्व बचेगा तो भारत का भी अस्तित्व और मजबूत होगा.. )